शनि व्रत की पौराणिक कथा और पूजन विधि (Shani Vrat Ki Pouranik Katha Aur Pujan Vidhi) | Free PDF Download
सनातन धर्म में लोग अपने किसी विशेष मनोकामना की पूर्ति हेतु कई तरह के व्रतों को करते है। उन्हीं व्रतों में से एक है “शनि व्रत”। ये व्रत लोग “शनि ग्रह” के बुरे प्रभाव से बचने के लिए करते है। चुकी: शनि देव कर्मों के देव है जो हमें हमारे कर्मों का फल देते है इसलिए लोग अपने बुरे कर्मों की क्षमा याचना के लिए भी शनि व्रत करते है। पर इस व्रत का सही फल प्राप्त करने के लिए शनि व्रत कथा का पाठ करना भी बहुत जरुरी है पर उससे पहले चलिए, जान लेते है शनि व्रत की पूजन विधि :
शनि व्रत की पूजन विधि :
“अग्निपुराण” के अनुसार “मूल नक्षत्र” में पड़ने वाले शनिवार से 7 सात शनिवार शनि देव की व्रत और पूजा करने से शनि ग्रह के दुष्प्रभावों से मुक्ति मिल जाती है। शनि व्रत को, “श्रावण माह” के किसी भी शनिवार से शुरू किया जा सकता है। शनिवार के दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान आदि करके भगवान शनि देव की विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए। कई लोग भगवान शनि देव की पूजा शनि मंदिर में जाकर करते है।
भगवान शनि देव को काले तिल, तेल, काली उड़द की दाल और गुड़ का भोग लगाएं तथा नीले लाजवंती के पुष्प चढ़ाकर आरती करें। इसके बाद शनि व्रत कथा का पाठ करें।
आइये अब जान लेते है, शनि व्रत की पौराणिक कथा :
एक समय की बात है सारे नवग्रह – “सूर्य”, “चंद्र”, “मंगल”, “बुद्ध”, “बृहस्पति”, “शुक्र”,”शनि”, “राहु” तथा “केतु” के मध्य विवाद छिड़ गया कि इन सारे ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? सारे ग्रह आपस में लड़ने लगे परन्तु जब कोई भी निर्णय नहीं निकला तो सभी ग्रह “इंद्र देव” के पास पहुंचे और उनसे इस प्रश्न का उत्तर पूछने लगे। देवराज इंद्र इस प्रश्न से घबरा गए और अपनी असमर्थता जताते हुए उन्होंने कहा कि – इस प्रश्न का उत्तर पृथ्वीलोक के राजा विक्रमादित्य ही दे सकते है क्योंकि वो एक न्यायप्रिय राजा है, वो ही इस प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ है। देवराज इंद्र की बात सुनकर सभी ग्रह राजा विक्रमादित्य के पास गए और उनसे यही प्रश्न करने लगें कि उनमे से सबसे बड़ा कौन है? इस प्रश्न से राजा विक्रमादित्य चिंतित हो उठें। राजा अच्छी तरह जानते थे कि जिस किसी ग्रह को यदि उन्होंने छोटा कहा वो ग्रह क्रोधित हो जाएगा।
तब राजा ने एक उपाय निकाला और उन्होंने नौ तरह के सिंघासन बनवाएं जो कि – “स्वर्ण”, “रजत”, “कांस्य”, “पीतल”, “सीसा”, “रांगा”, “जस्ता”, “अभ्रक” और “लोहा” से बने हुए थे और राजा ने कहा कि कृपया आप सब अपने-अपने सिंघासन पर विराजिए और जो कोई भी सबसे प्रथम सिंघासन पर बैठेगा वो सबसे बड़ा तथा जो अंतिम सिंघासन पर बैठेगा वही सबसे छोटा होगा। सबसे अंतिम में था लोहे का सिंघासन और इस कारणवश भगवान शनि देव लोहे के सिंघासन पर बैठे और शनि देव सभी ग्रहों में सबसे छोटे कहलाएं। भगवान शनि देव ने इस घटना को राजा की जान बूझकर की गई एक छल सोची और उन्होंने क्रोधित होकर राजा से कहा “राजा तुम मुझे नहीं जानते, सूर्य देव तो एक राशि में केवल एक महीना रहते है, चन्द्र देव सवा 2 महीना 2 दिन, मंगल देव डेढ़ महीना, बृहस्पति देव 13 महीना तथा बुध और शुक्र देव एक – एक महीने ही विचरण करते है पर मै तो प्रत्येक राशि में ढाई से साढ़े-सात साल तक रहता हूँ और बड़े से बड़ों का विनाश मैंने किया है। श्री राम की भी साढ़े-साती के समय उन्हें वनवास भोगना पड़ा और रावण की आने पर लंका को वानरों की सेना से हरवाया था। अब तुम भी सावधान रहना राजा विक्रमादित्य” – यह कहकर क्रोधित शनि देव वहाँ से चले गए और अन्य देवता तो पहले ही प्रसन्नता से जा चुकें थें।
कुछ सालों के बाद, राजा की साढ़े-साती आयी और तब भगवान शनि देव घोड़ों के सौदागर बनकर राजा की नगरी पहुंचे, उनके पास बहुत ही अच्छे अश्व (घोड़े ) थे । जब राजा ने यह बात सुनी तो उन्होंने अपने अश्वपाल को अच्छे से अच्छा घोडा खरीदने की आज्ञा दी। अश्वपाल ने कई अच्छे घोड़ों को खरीदा और राजा के लिए सबसे बढ़िया घोडा लेकर आया । राजा जैसे ही घोड़े पर बैठे, वो धोड़ा राजा को अपने ऊपर बिठा कर जंगल की ओर भागा और जंगल के बहुत अंदर तक पहुंचकर घोडा वहाँ से गायब हो गया, राजा वहीँ जंगल के मध्य भूके प्यासे भटकते रहें। कुछ देर बाद राजा को एक ग्वाला मिला जो उन्हें पानी भी पिलाया और राजा ने प्रसन्न होकर उसे अपनी अंगूठी भी दे दी। अंगूठी देने के बाद राजा अपने नगर के तरफ बढ़ गएँ और वहाँ राजा ने अपना नाम सभी को उज्जैन निवासी विका बतलाया। वहाँ पर उन्होंने एक सेठ के दूकान पर जल ग्रहण किया और विश्राम भी किया। भाग्यवश उसी दिन सेठ के दूकान पर सबसे ज्यादा विक्री भी हुई, जिससे सेठ प्रसन्न होकर विका को भोजन कराने के लिए अपने घर ले गया। सेठ ने खूंटी पर एक हार टांग रखीं थी जिसे खूंटी स्वयं निगल गई और जब सेठ ने खूंटी पर वो हार नहीं पाया तो उसने सोचा विका ने ये हार चुरा लिया और तब सेठ ने विका को कोतवाल के हवाले कर दिया। उसके बाद वहाँ के राजा ने भी उसे चोर समझकर उसके हाथों और पैरों को कटवाकर, और चौरंगिया बनाकर उसे नगर से बाहर फिंकवा दिया। वहीँ से एक तेली जा रहा था उसे विका पर दया आ गई और उसे अपने बैलगाड़ी पर बिठा लिया। विका अपने जीभ से बैलों को हांकने लगा। उसी समय विका की शनि दशा की भी समाप्ती हुई।
वर्षाकाल आने पर विका मल्हार गाने लगा और जिस नगर में विका मल्हार गा रहा था वहीँ की राजकुमारी मनभावनी को विका का गीत भा गया। राजकुमारी ने मन ही मन यह प्रण ले लिया की वो विवाह उसी मल्हार गाने वाले से करेगी और इस कारण राजकुमारी ने अपनी दासी को मल्हार गाने वाले के बारे में पता करने को भेजा और दासी ने राजकुमारी को बताया की मल्हार गाने वाला एक चौरंगियां है। राजकुमारी नहीं मानी। अगली सुबह राजकुमारी अनशन पर बैठ गयी की विवाह तो उसी मल्हार से करेगी। राजकुमारी को बहुत समझाने पर भी जब न मानी तो राजा ने उस तेली को बुलावा भेजा और विवाह की तैयारी के लिए कहा। राजकुमारी का विवाह विका के साथ हो गया। फिर एक रात स्वप्न में विका को शनि देव ने दर्शन दिया और कहा कि “हे राजन ! आपने मुझे छोटा बता कर कितना दुःख झेला”। इसपर राजन ने शनि देव से क्षमा याचना की और प्रार्थना की – “हे शनि देव आपने जैसा दुःख मुझे प्रदान किया आप वैसा दुःख किसी और को ना दें” शनि देव राजा की बात मान गए और उन्होंने कहा – जो भी मेरे व्रत को करेगा और शनि व्रत कथा को पढ़ेगा और कहेगा उसे मेरी दशा में कोई भी दुःख न झेलनी पड़ेगी।
जो भी नित्य मेरा ध्यान करेगा तथा चीटियों को आटा डालेगा उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। इसके साथ ही शनि देव ने राजा के हाथ पैर भी लौटा दिए।प्रातः काल राजकुमारी के आँख खुलने पर उसने देखा राजा के हाथ और पैर वापस आ गएँ तो वह आस्चर्य और प्रसन्न हो जाती है। विका ने राजकुमारी को बताया की वो उज्जैन का राजा विक्रमादित्य है। राजा की बात सुनकर सभी बहुत प्रसन्न हुए। सेठ ने जब सुना की वो विका ही उज्जैन के राजा है तो वो राजा के पैर पकड़कर क्षमा मांगने लगा। राजा ने सेठ से कहा की इसमें तुम्हारी कोई भी गलती नहीं, ये तो शनि देव का क्रोध था जो मैंने शनि दशा में भोगा। इसमें किसी का भी कोई दोष नहीं है।
सेठ ने तब भी राजा से कहा की “कृपया आप मेरे घर चलकर भोजन करें “। राजा सेठ के घर गएँ जहाँ सेठ ने राजा के लिए नाना प्रकार के पकवान बनवाये थे। इसके साथ सबने ही वहां देखा की वो खूंटी स्वयं ही उस हार को उगल रही है। सेठ ने राजा को बहुत सारी मुहँरें दी और अपनी कन्या श्रीकंवरी के साथ राजा को विवाह करने का निवेदन किया। राजा ने विवाह को सहर्ष स्वीकारा। कुछ समय उपरान्त राजा अपनी दोनों रानी मनभावनी और श्रीकंवरी के साथ अपने नगरी लौटा। उज्जैन नगरवासी सिमा पर ही राजा और रानियों के सत्कार के लिए खड़ी थी। सारे नगर में दिए जलाएं गएँ और फूलों की वर्षा हुई। राजा ने सारे नगर में घोषणा करवाई कि “मैंने शनि देव को सबसे छोटा कहा था पर सत्य तो यह है कि वही सर्वोपरि है “। इसके बाद से ही सारे नगर वासी ही शनिदेव की पूजा करने लगें और शनि व्रत कथा का पाठ करने लगें और सारी प्रजा बहुत ही सुख से जीवन यापन करने लगी।
जो कोई भी भगवान शनि देव की इस व्रत कथा को पढ़ता या सुनता है उसके सारे दुःख और कष्ट दूर हो जाते है। व्रत के दिन शनि व्रत कथा को अवश्य पढ़ें । जय शनि देव !!
Frequently Asked Questions
1. शनि व्रत कब से शुरू करें ?
अग्निपुराण के अनुसार “मूल नक्षत्र” में पड़ने वाले शनिवार या “श्रावण मास” के शनिवार से शनि व्रत की शुरुवात कर सकते है।
2. शनि देव को कौन सा फूल चढ़ाएं ?
शनि देव को नीले लाजवंती के फूल चढ़ाएं।
3. भगवान शनि देव को क्या चढ़ाये?
भगवान शनि देव को काले तिल, तेल, काली उड़द की दाल और गुड़ चढ़ाएं।
4. शनि देव की साढ़े साती कितने समय तक रहती है ?
शनि देव की साढ़े साती साढ़े सात सालों तक रहती है।
5. शनि देव की ढैया कितने समय तक रहती है ?
शनि देव की ढैया ढाई सालों तक रहती है।
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