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Shri Neminath Chalisa | श्री नेमिनाथ चालीसा  | Free PDF Download

Shri Neminath Chalisa | श्री नेमिनाथ चालीसा | Free PDF Download

|| श्री नेमिनाथ चालीसा ||

श्री जिनवाणी शीश धार कर, सिध्द प्रभु का करके ध्यान ।
लिखू नेमि- चालीसा सुखकार, नेमिप्रभु की शरण में आन ।

समुद्र विजय यादव कूलराई, शौरीपुर राजधानी कहाई ।
शिवादेवी उनकी महारानी , षष्ठी कार्तिक शुक्ल बरवानी ।

सुख से शयन करे शय्या पर, सपने देखें सोलह सुन्दर ।
तज विमान जयन्त अवतारे, हुए मनोरथ पूरण सारे ।

प्रतिदिन महल में रतन बरसते, यदुवंशी निज मन में हरषते ।
दिन षष्ठी श्रावण शुक्ला का, हुआ अभ्युदय पुत्र रतन का ।

तीन लोक में आनन्द छाया, प्रभु को मेरू पर पधराश ।
न्हवन हेतु जल ले क्षीरसागर, मणियो के थे कलश मनोहर ।

कर अभिषेक किया परणाम, अरिष्ट नेमि दिया शुभ नाम ।
शोभित तुमसे सस्य-मराल, जीता तुमने काल – कराल ।

सहस अष्ट लक्षण सुललाम, नीलकमल सम वर्ण अभिराम ।
वज्र शरीर दस धनुष उतंग, लज्जित तुम छवि देव अनंग ।

घाचा-ताऊ रहते साथ, नेमि-कूष्ण चचेरे भ्रात ।
धरा जब यौवन जिनराई, राजुल के संग हुई सगाई ।

जूनागड़ को चली बरात, छप्पन कोटि यादव साथ ।
सुना वहाँ पशुओं का क्रन्दन, तोडा मोर – मुकुट और कंगन ।

बाडा खौल दिया पशुओं का, धारा वेष दिगम्बर मुनि का ।
कितना अदभुत संयम मन में, ज्ञानीजन अनुभव को मन में ।

नौ-नौ आँसू राजुल रोवे, बारम्बार मूर्छित होवे ।
फेंक दिया दुल्हन श्रृंगार, रो…रो कर यों करें पुकार ।

नौ भव की तोडी क्यों प्रीत, कैसी है ये धर्म की रीत ।
नेमि दें उपदेश त्याग का, उमडा सागर वैराग्य का ।

राजुल ने भी ले ली दीक्षा, हुई संयम उतीर्ण परीक्षा।
दो दिन रहकर के निराहार, तीसरे दिन स्वामी करे विहार ।

वरदत महीपति दे आहार, पंचाश्चर्य हुए सुखकार ।
रहे मौन से छप्पन दिन तक, तपते रहे कठिनतम तप व्रत ।

प्रतिपदा आश्विन उजियारी, हुए केवली प्रभु अविकारी ।
समोशरण की रचना करते, सुरगण ज्ञान की पूजा करते ।

भवि जीवों के पुण्य प्रभाव से, दिव्य ध्वनि खिरती सद्भाव से ।
जो भी होता है अतमज्ञ, वो ही होता है सर्वज्ञ ।

ज्ञानी निज आत्म को निहारे, अज्ञानी पर्याय संवारे ।
है अदभुत वैरागी दृष्टि, स्वाश्रित हो तजते सब सृष्टि ।

जैन धर्मं तो धर्म सभी का, है निज़घर्म ये प्राणीमात्र का।
जो भी पहचाने जिनदेव, वो ही जाने आत्म देव ।

रागादि कै उन्मुलन को, पूजें सब जिनदेवचरण को ।
देश विदेश में हुआ विहार, गए अन्त में गढ़ गिरनार ।

सब कर्मों का करके नाश, प्रभु ने पाया पद अविनाश ।
जो भी प्रभु की शरण ने आते, उनको मन वांछित मिलजाते ।

ज्ञानार्जन करके शास्त्रों से, लोकार्पण करती श्रद्धा से ।
हम बस ये ही वर चाहे, निज आतम दर्शन हो जाए ।


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